देवसेना का गीत

 आह ! वेदना मिली विदाई!

मैने भ्रम - वश जीवन संचित,

मधुकरियो की भीख लुटाई


छलछल थे संध्या के श्रमकण,

आशु से गिरते थे प्रतिक्षण |

मेरी यात्रा पर लेती थी -

नीरवाता अनंत अंगड़ाई |

श्रमित स्वप्न की माधुमाया में

गहन विपिन की तरु - छाया में,

पथिक उनिदी श्रुति में किसने -

ये विहाग की तान उठाई |



लगी सतृष्ण दीठ  थी सबकी,

रही बचाए फिरती कबकी |

मेरी आशा आह ! बावली,

तूने खो दी सकल कमाई |,



चढ़कर मेरे जीवन रथ पर ,

प्रलय चल रहा अपने पथ पर |

मैने निज दुर्बल पद -बल पर ,

उससे हारी -होड़ लगाई |



लौटा लो यह अपनी थाती 

मेरी करुणा हा -हा खाती

विश्व ! न संभलेगी यह मुझसे 

इससे मन की लग गंवाई |


                                     ("स्कंदगुप्त" नाटक से )




आप लोगों को पता होगा कि यह कविता "जयशंकर प्रसाद" जी की है 

 ओर आपकी 12 th कक्षा की अंतरा भाग 2 से ली गई है ||



               ( TYPING BY "Deepak Chanderiya" )

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